महाराणा प्रताप और घास की रोटियां

 महाराणा प्रताप ने अपने संघर्ष के दिनों में जिस घास की रोटी और अन्य वनस्पतियों का सहारा लिया था, वे पोषण से भरपूर थीं। अनुसंधान मे सामने आया कि दक्षिणी राजस्थान में कुपोषण की वजह परंपरागत खाद्यान्न से विमुख होना भी है। असल में उस वक्त आदिवासी परिवार घास-फूस, वनस्पति की रोटी और सब्जियों से पेट भरते थे। दक्षिणी राजस्थान के वीरो ने इन्हीं कंद-मूल और घास की रोटियां खाकर मुगल सेना को लोहे के चने चबवाए थे। लेकिन इस पौष्टिक आहार को जनजाति के लोग भूल बैठे। यही कारण है कि परम्परागत खाद्यान्न छोड़ते ही बीमारियों ने घर बना लिया। अधिकतर प्रसूताएं रक्ताल्पता की शिकार रहती है जिससे बच्चे भी कुपोषित पैदा होते हैं। एक अनुसंधान के अनुसार महाराणा प्रताप कालीन खाद्य व कृषि संस्कृति को पुनर्जीवित करने की जरूरत है जो कुपोषण समाप्त करने में कारगर साबित हो।

घास नहीं, पौष्टिक खाद्यान्न

जब महाराणा को जंगल में जीवन व्यतीत करना पड़ा था, तब मेवाड़ की मगरियों और घाटियों की उपजाऊ धरा में घास की विभिन्न प्रजातियों ने उन्हें और परिवार को अपने पोषक तत्वों से पोषित किया था। प्रताप व उनकी सेना ने अपामार्ग के बीजों की रोटियां खाई थी, जिसे खाने के बाद लम्बे समय तक भूख नहीं लगती है। इसके अलावा रागी, कुरी, हमलाई, कोदों, कांगनी, चीना, लोयरा, सहजन से बनी खाद्य सामग्री भी खूब खाई जाती। खास बात यह है कि इनका वर्षों तक भंडारण करने के बावजूद कीट-प्रकोप नहीं होता है। उदयपुर के अलावा बांसवाड़ा व डूंगरपुर जिले में इनकी अधिकता है।

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